Sunday, November 8, 2009

प्रवीण सहायक सामग्री - पाठों का सारांश

मिट्टी की गाडी

यह शुद्रक द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम' की कहानी है । नाटक का नायक चारुदत्त व्यापार में घाटे के कारण गरीबी में जी रहा है । बसंतसेना नाम की गणिका उससे प्रेम करती है । समाज में व्याप्त अन्याय और असुरक्षा के कारण बसंतसेना ने अपने गहने चारूदत्तर के पास रखवा दिए थे । गहने चारूदत्त के घर से चोरी हो जाने के कारण चारुदत्त की पत्नी द्यूता अपना हार बसंतसेना के पास भेज देती है । चोरी हुए गहने बसंतसेना को मिल जाते हैं और वह द्यूता को उसका हार लौटाने उसके घर जाती है । चारुदत्त का पुत्र मिट्टी की गाड़ी से खेल रहा है, बसंतसेना उसकी गाड़ी को अपने आभूषणों से भर देती है । राजा का साला शंकर भी बसंतसेना से प्रेम करता है और ईर्ष्या वश वह उसकी हत्या का प्रयास करता है और चारुदत्त पर हत्या का आरोप लगा देता है । न्यायालय में भी चारुदत्त को न्याय नहीं मिलता और उसे मृत्युदंड की सजा सुना दी जाती है । इसके कारण जनक्रांति होती है । क्रांतिकारियों की भीड़ से शंकर को अपनी जान बचाना कठिन हो जाता है । बसंतसेना भी बच जाती है और सारे आरोप झूठे सिद्ध हो जाते हैं । प्रजा योग्य और न्यायप्रिय व्यक्ति को अपना राजा चुनती है ।


अमर आश्रम

एक धनी आदमी था । उसने अपने पुत्र का नाम अमर रखा । उसकी इच्छा‍ थी कि उसका पुत्र बड़ा होकर अच्छे काम करे और अपना नाम अमर करे । बड़ा होकर अमर ने सोचा, क्यों न वह अपना नाम कुछ ऐसे स्थानों पर लिखे जहां लाखों लोग उसे देखे और उसका नाम अमर हो जाए । उसने अपना नाम रेत पर लिखा, तेज हआवों ने उसे उड़ा दिया । एक दिन उसने अपना नाम वृक्ष के तने की छाल पर लिख दिया लेकिन दुर्भाग्य से वह पेड़ भी टूट गया । फिर उसने एक प्राचीन भवन की दीवार पर अपना नाम लिख दिया लेकिन वह दीवार भी ढह गई । फिर उसने एक बड़े शिलाखंड पर अपना नाम अंकित किया लेकिन वह शिलाखंड भी ध्वस्त हो गया और उसके अमर होने का सपना चूर चूर हो गया । उन्हीं दिनों उसके गांव में एक संत आए और उन्होंने उसे समझाया कि‍ अगर अपना नाम अमर करना है तो उसे मिट्टी या पत्‍थर पर नहीं बल्कि उसे लोगों के हृदय पर लिखो । उसे समझ में आ गया कि लोगों की सेवा और भलाई से ही नाम अमर हो सकता है । उसने अपना पूरा जीवन जन सेवा में लगा दिया । अपने घर को आश्रम में बदल दिया - अमर आश्रम ।

परीक्षा

देवगढ़ के महाराज ने अपने रियासत के लिए नया दीवान खोजने की जिम्मेदारी अपने नीतिकुशल दीवान सरदार सुजान सिंह पर ही डाल दी । दूसरे दिन यह विज्ञापन निकाला गया कि रियासत के लिए एक सुयोग्य दीवान की जरूरत है । एक माह तक उम्मीदवारों के रहन-सहन आदि की परख की जाएगी और योग्य व्यहक्ति को दीवानी पद दी जाएगी । सैकडों लोग अपना भाग्य आजमाने पहुंच गए । हर कोई अपने आपको योग्‍य और लायक उम्मीदवार प्रमाणित करने का प्रयास कर रहा था । सुजान सिंह की अनुभवी आंखें सही व्यक्ति की तलाश कर रही थीं । एक दिन युवकों ने हॉकी के खेल का आयोजन किया । खेल दिन भर चलता रहा । खेल के मैदान से कुछ ही दूरी पर एक नाला था । एक किसान की अनाज से भरी हुई गाड़ी नाले में फंस गई । काफी प्रयास के बाद भी जब गाड़ी निकालने में असफल रहा तो किसान वहीं निराश होकर बैठ गया । सभी खिलाड़ी शाम को एक एक कर उसी रास्ते से निकल गए लेकिन किसी ने किसान की सहायता नहीं की । उन्हीं में से एक खिलाड़ी थका-हारा और लंगड़ाता हुआ आ रहा था । उसने किसान की सहायता की और गाड़ी नाले के ऊपर आ गई । महीना पूरा होने के बाद सभी किस्मत का फैसला जानने को बेताब थे । सरदार सुजान सिंह ने बताया कि जो व्यक्ति स्वयं जख्मी होकर भी एक गरीब किसान की सहायता कर सकता है उसके हृदय में साहस, आत्म‍बल और उदारता का वास है । दीवानी पद के लिए हमें ऐसे ही आदमी की तलाश थी । पंडित जानकीनाथ दीवान नियुक्त किए जाते हैं ।

सपनों का महल

शिवनाथ बाबू एक खुशमिजाज आदमी थे । वे मुंबई में रहते थे और नासिक में अपना मकान बनवा रहे थे । सेवा निवृत्ति के बाद वे अपने परिवार के साथ शांति से जीवन बिताना चाहते थे । अपने जीवन की सारी जमा पूंजी वे मकान के काम में लगा रहे थे । जब भी कोई अवसर मिलता वे नासिक में अपने मकान का काम देखने जाया करते थे । अक्सर वे अपने घर और परिवार के बारे में ही सोचते रहते थे । उनका मानना था कि बस अब कुछ दिनों की तपस्या है, बाद में तो अपना जीवन अपनी इच्छानुसार बिताएंगे । आखिर एक दिन वे सेवा निवृत्त होकर नासिक पहुँच गए । घर की व्यवस्था अपने हाथों में ले ली और संतोष का अनुभव करने लगे । घर में रहते हुए वे अक्सर अपने पुत्र को उपदेश देने लगते और पुत्री को भी टोकते रहते । बच्चों तथा पत्नी को यह सब अच्छा नहीं लगता था । शिवनाथ बाबू को महसूस होने लगा कि वे अपने ही घर में अजनबी बनते जा रहे हैं । इस तरह एक अनचाहा व्यक्ति बनकर रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता । उन्होंने सोचा कि क्यों न मैं दुबारा मुंबई चला जाऊं । लेकिन जाने से पहले उन्होंने एक बार घर के लोगों से बात करना ठीक समझा । शिवनाथ बाबू की बातें सुनकर पत्नी और बच्चों को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने क्षमा मांगी । शिवनाथ बाबू को अनुभव हुआ कि उनका सपना हकीकत में बदल गया है ।

1 comment:

  1. चिट्ठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. लेखन के द्वारा बहुत कुछ सार्थक करें, मेरी शुभकामनाएं.
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    महिलाओं के प्रति हो रही घरेलू हिंसा के खिलाफ [उल्टा तीर] आइये, इस कुरुती का समाधान निकालें!

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