Monday, January 10, 2011

श्रीमद्भगवद्गीता का भोजपुरी पद्यानुवाद

गीता की ज्ञान गंगा अगर भोजपुरी जैसी सहज सरल भाषा में आपके सामने हो,  तो अवश्य ही आपको सुखद आश्चर्य होगा । बड़े ही मेहनत और लगन के साथ मेरे अग्रज श्री कमलाकांत पाठक जी ने श्रीमदभगवद्गीता का भोजपुरी पद्यानुवाद किया है, जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुकी है । यह ज्ञान गंगा,  मैं अनुवादक की अनुमति से अपने ब्लॉग में प्रकाशित करने का प्रयास कर रहा हूँ ताकि यह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे । अगर आपको इसमें कुछ भी अच्छा लगे तो अनुवादक को धन्यवाद अवश्य कहें । 09434230225


गीतामृतम
कमलेश
(श्रीमदभगवद्गीता का भोजपुरी पद्यानुवाद)
कमलाकांत पाठक कमलेश
॥ श्री गणेशाय नमः ॥
ऊँ पार्थाय प्रतिबोधितां
भगवता नारायणेन स्‍वयं,
व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना
मध्ये महाभारतम् ।
अद्वेतामृतवर्षिणीं
भगवतीमष्‍टादशाध्‍यायिनी-
मम्‍ब तवामनुसन्‍दधामि
भगवद्गीते भवद्वेषिणीम् ।।

  गीतामृतम

प्रस्‍तावना
नर सहित नरोत्तम नारायण के बार बार सादर प्रणाम ।
जय सरस्वती, जय वेदव्यास , जय, बार बार बा नमस्कार ॥१॥
जय योगेश्वर, जय परम ब्रह्म, जय जय जग के करतार दिव्य ।
जय-जय अनादि जय-जय अनंत जय-जय अव्यक्त साकार दिव्य ॥२॥
जय सकल चराचर के कर्ता, व्यवहार दिव्य, आधार दिव्य ।
जे करें सृजन, पालन पोषण , शृंगार दिव्य , संहार दिव्य ॥३॥
जय वेद-उपनिषद दिव्य-धेनु, जय वासुदेव गोपाल दिव्य ।
जय पार्थ-वत्स पियलें जे ज्ञान-विज्ञान-दुग्ध के धार दिव्य ॥४॥
भगवद्गीता जय गीतामृत, जय दिव्य ज्ञान, संवाद दिव्य ।
जय दिव्य-दिव्य श्रोता-वक्ता केशव के , अर्जुन के समान ॥५॥
पांडव रहलें निश्छल सब दिन, कौरव-दल छल से भरल रहे ।

पांडव के नष्ट करे खातिर, चललें ना कवना कुटिल चाल ?? ६॥  
पाँचों पांडव गण पितृहीन, कवना कवना दुख ना सहलें ?
विष पियलें वीर वृकोदर भी, पग-पग अपमान भइल भारी ॥७॥
माता कुंती के सहित पाँच पांडव के जियत जरा दिहलें ।
अपना जनते जब दुर्योधन, तब रहे शेष कवना उपाय ??८॥ 
गुरुजन के प्यार-दुलार रहे, आपन निष्ठा, आचरण-पुण्य ।
माता के ममता, परम सखा, श्रीकृष्ण स्वयं, भगवान स्वयं ॥९॥
पांडव पुरुषार्थ सहित जियलें, तबहूं सब बैर भुला करके ।
करके अपराध क्षमा सबके, नुक-छिप के जहां-तहाँ कुछ दिन ॥१०॥
ब्राह्मण के वेश रहे लेकिन क्षत्रिय स्वभाव बलवान रहे ।
द्रौपदी-स्वयंवर मत्स्य-यंत्र के भेद, जीत लिहलें अर्जुन ॥११॥
सब लोग चिहुँक उठलें, जब भेद खुलल, कौरव भइलें उदास ।
धृष्टराष्ट्र दया करके कहलें, साम्राज्य नया निर्माण कर ॥१२॥
पांडव प्रसन्न मन से, उत्साह सहित, निर्माण नया कइलें  ।
अद्भुत निर्माण, कि दुर्योधन देखते हो गइलें खाक पुनः ॥१३॥
छल-छ्द्म जुआ, फिर चीर हरण, ना भइल पुनः कवना अनर्थ ?
ना खुलल आँख गांधारी के ना भीष्म प्रतिज्ञा ही टूटल ॥१४॥
पांडवगण तेरह साल पुनः, वनवास सहित अज्ञातवास ।
पूरा करके वापस अइलें, हक मिलल न वापस पर उनकर ॥१५॥
दुर्योधन कहलें कवन राज्य? ना देब जिए के पाँच ग्राम ।
सुई के नोक बराबर भी, पांडव के कवनों हक नइखे ॥१६॥
केशव समुझवलें बहुत किंतु, हठ दुर्योधन के ना मानल ।
गुरुजन भइलें लाचार बहुत, अपमान कृष्ण के बहुत भइल ॥१७॥
अन्याय-न्याय दू पक्ष प्रबल, बा सृष्टि तभी से बा प्रत्यक्ष ।
अन्याय कभी चाहे न न्याय के सिर उतार लेवे से कम ॥१८॥
परिजन-पुरजन, हित-मित्र, स्वजन, निज आन, मोह निज स्वार्थ हेतु ।
कुछ कौरव के दल में, कुछ-कुछ पांडव के दल में आ गइलें ॥१९॥
धृतराष्ट्र देख सकलें न सत्य, ना विदुर द्रोण कुछ कर सकलें ।
कवनों विधि ना मानल अधर्म, हो गइल सुनिश्चित धर्मयुद्ध ॥२०॥
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 प्रथम अध्याय  
पुछलें धृतराष्ट्र कि धर्मक्षेत्र में , कुरुक्षेत्र में हे संजय !
पांडव हमार सुत कह युद्ध उत्सव में जुट के का कइलें ??१॥
संजय कहलें ,  पांडव सेना के व्यूह देख के दुर्योधन ।
गुरु द्रोण के निकट पहुँच करके, कहलें राजन फिर इहे वचन ॥२॥
आचार्य,  शिष्य राउर बाटे जे द्रुपद-पुत्र अति बुद्धिमान ।
रचले बा व्यूह इहे देखीं पांडव-दल के भारी सेना ॥३॥
गुरुदेव, भीम-अर्जुन समान धनुधारी, भारी युद्धवीर ।
ई युयुधान-सात्यकि, विराट, ई महारथी महाराज द्रुपद ॥४॥
शिशुपाल-पुत्र ई धृष्टकेतु, ई चेकितान, ई काशिराज ।
पुरूजित, ई मामा कुंतिभोज, ई नरपुंगव बलवान शैब्य ॥५॥
पंचाल देश के युधामन्यु, विक्रांत उत्तमौजा इहवाँ ।
सौभद्र , द्रौपदी-पुत्र सकल, सबके सब महारथी गुरुवर ॥६॥
हमनीं के दल में भी गुरुवर, सेनानायक जे प्रमुख हवन ।
हम कहीं नाम उ सबके भी परिचय खातिर बारी-बारी ॥७॥
रउरा भी, भीष्म आ कर्ण सहित, ई कृपाचार्य अश्वत्थामा ।
अति सूरवीर योद्धा विकर्ण , ई सोमदत्त-सुत भूरिश्रवा ॥८॥
हमरा पर जीवन न्यौछावर कर लिहले नाना अस्त्र-शस्त्र ।
दूसर भी अनगिन शूरवीर सब युद्ध विशारद इहे हवन ॥९॥
हमनीं के ई भारी सेना संरक्षित भीष्म पितामह से ।
बा विजय हेतु पर्याप्त, जवन बा सैन्य भीम से अभिरक्षित ॥१०॥
ई कारण रउरा यथाभाग आपन-आपन मोर्चा सम्हार ।
हो सावधान, हर तरह करीं, बस, एक भीष्म के ही रक्षा ॥११॥
हर्षित दुर्योधन के कइलें, कर वृद्ध पितामह सिंहनाद ।
ऊ शंख फूँक दिहलें, ऊँचे सुर में, अतिशय भारी, महान॥१२॥
तब शंख, नगाड़ा, नरसिंघा, ढोलक, मृदंग सब एक संग ।
बाजन अनेक बज उठल, तुमुल भारी भयकारी शोर भइल ॥१३॥
उज्जल-उज्जल घोड़ा जोतल, रथ पर रहलें पांडव-माधव ।
उहो फूँक दिहलें तत्क्षण ही दिव्य शंख आपन-आपन ॥१४॥
हृषिकेश बजवलें पांचजन्य के, वीर धनंजय देवदत्त ।
तब भीमकर्म वृक-उदर बजवलें पौंड्र नाम के महाशंख ॥१५॥
फुँकले तब कुंतीपुत्र युधिष्ठिर शंख अनंत-विजय नामक ।
नकुल सुघोष बजवलें, मणिपुष्पक सहदेव बजा दिहलें ॥१६॥
भारी धनुधारी काशिराज, श्रीमान शिखंडी महारथी ।
धृष्टद्युम्न सात्यकि विराट अपराजित, शंख बजा दिहलें ॥१७॥
तब  द्रुपद, द्रौपदी-पुत्र सकल राजा, सौभद्र महाबाहू ।
शंख फूँक दिहलें संग-संग, आपन-आपन सब भिन्न-भिन्न ॥१८॥
अइसन रणघोष भइल भारी पृथ्वी-ताल से आकाश तलक ।
सुनके धृतराष्ट्र-पुत्र सबके भय से छाती फाटे लागल ॥१९॥
धृतराष्ट्र-पुत्र सबके सम्मुख, तैयार देख करके रण में ।
भइलें सचेष्ट  कपिध्वज अर्जुन कर में गांडीव उठा लिहलें ॥२०॥
अर्जुन श्रीकृष्ण के संबोधित करके कहलें तब इहे वचन ।
दुनों सेना के ठीक मध्य , हे अच्युत, रथ ले चलीं तनिक ॥२१॥
हम करीं निरीक्षण तनिक, इहाँ कवना-कवना योद्धा अइलें ?
हमरा से युद्ध करे खातिर कामना सहित, सम्मुख रण में ॥२२॥
जे छल-प्रपंचप्रिय, बुद्धिहीन, धृतराष्ट्र-पुत्र के हितचिंतक ।
हमरा से युद्ध करे अइलें , उ सबके तनिक निहारीं हम ॥२३॥
निद्राजित के ई आर्त्त वचन सुनके तुरते श्री हृषीकेश ।
दुनों सेना के बीच ठाढ़ कर दिहलें रथ ले आ करके ॥२४॥
जहवाँ रहलें गुरु द्रोण, भीष्म, सब मुख्य-मुख्य राजगण भी ।
कहलें, अवलोकन कर पार्थ, कौरव-दल के एकत्र सैन्य ॥२५॥
देखलें अर्जुन काका, बाबा, आचार्य सहित मामागण के ।
भाई, भाई के पुत्र-मित्र, नाती-पोता सबके उहवाँ ॥२६॥
फिर ससुर सहित प्रिय मित्र-बंधु, सबके रण प्रांगण में देखलें ।
दूनों सेना में डटल, परस्पर प्राण हरे खातिर उद्धत ॥२७॥
करुणा से विगलित हो करके कहलें दुख भरल वचन अर्जुन ।
हे कृष्ण, युद्ध-अभिलाष देख प्रियजन के, शोक भइल भारी ॥२८॥
सब अंग शिथिल होखल जाता, मुख सुख रहल बाटे हमार ।
थर-थर काँपे लागल शरीर, दुख से रोमांच  बहुत होता ॥२९॥
गांडीव हाथ से ससरत बा, हो रहल त्वचा मे बहुत जलन ।
मन भ्रमित हो गइल, हम नइखीं अब ठाढ़ रहे में भी सक्षम ॥३०॥
लक्षण भी सब विपरीत इहाँ, हम देख रहल बानी अपार ।
कल्याण कहाँ बाटे रण में, हन के आपन परिजन-पुरजन ??३१॥
हमरा ना चाहीं विजय कृष्ण, हमरा ना चाहीं राज्य-भोग ।
केशव, अइसन भी राज्य या कि जीवन रहला से का होई ??३२॥
जिनके खातिर सब राज्य-भोग, सब सुख के चाह रहे हमरा ।
सुख-संपद तजके उहे, युद्ध में, प्राण त्याग के, आ गइलें ॥३३॥
आचार्य, पितर, ताऊ-चाचा भी, पुत्र सखा भी, दादा भी ।
मामा भी, साला-ससुर, पौत्र, प्रिय बंधु, सखा, सब संबंधी ॥३४॥
ई सबके कवनों हालत में, मोहन, हम मारल ना चाहीं ।
चाहे त्रैलोक के राज मिले, चाहे हम हीं मारल जाईं ॥३५॥
धृतराष्ट्र-पुत्र सबके हन के, हम ही पा जाइब कवन खुशी ?
ई हवन आततायी लेकिन हत्या के पाप बहुत होई ॥३६॥
ई कारण हम सक्षम नइखीं, धृतराष्ट्र-पुत्र के मारे में ।
आपन कुटुम्ब जन के हन के मोहन, कवना सुख पाइब हम ??३७॥
यद्यपि लालच से भ्रष्ट भइल बाटे ई सबके मन-मानस ।
देखत नइखन कुल के विनाश या मित्र-द्रोह में दोष-पाप ॥३८॥
कुल के विनाश से दोष बहुत होई, जब जानत बानी हम ।
ई पाप कर्म से तब हम हीं काहे ना हट जाईं मोहन ??३९॥
कुल के विनाश हो गइला से, कुलधर्म सनातन मिट जाई ।
कुलधर्म नष्ट हो गइला पर, कुल में भर जाई महापाप ॥४०॥
कुल में अधर्म बढ़ गइला से कुल के नारी दूषित होई ।
कुल में दूषित नारी सबसे संतान वर्णसंकर होई ॥४१॥
कुल के, कुलघाती के, सबके ले जाएवाला नरक लोक ।
बिन श्राद्ध, बिन तर्पण के तब पितरन के होई बहुत क्लेश ॥४२॥
हे कृष्ण !  वर्णसंकर-कारक के दोष ई बा कुलघाती के ।
जवना से कुल के धर्म, जाति के धर्म सनातन मिट जाला ॥४३॥
कुल-धर्म नष्ट हो गइल, जवन जन के, ऊ सबके हे मोहन !
नरके निवास होई अनंत, हम इहे सुनत आइल बानी ॥४४॥
हा शोक ! किंतु सुख के लालच में, राज्य भोग के लालच में ।
हमनीं भी तत्पर हो उठनीं प्रियजन के प्राण हरे खातिर ॥४५॥
यदि शस्त्र हाथ में ले करके धृतराष्ट्र-पुत्र हमरा मारें ।
निःशस्त्र मृत्यु रण में हमार अतिशय उत्तम होई तबहूँ ॥४६॥
संजय कहलें, ई कह करके, रथ पर ही बइठ गइलें राजन ।
अति-शोकग्रस्त, उद्विग्न-हृदय, अर्जुन, तज दिहलें धनुष-बाण ॥४७॥

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